hindisamay head


अ+ अ-

कविता

इक तेरी आदत...

प्रतिभा कटियार


आदत है बेवजह मुस्कुराने की
खामोशी को नोच कर फेंक देने की
और मौन के गले में
शोर का लॉकेट लटका देने की
तमाम ताले छुपा देने की
और उन तालों की तमाम चाबियाँ
कमर में लटकाकर
ठसक से घूमते फिरने की
चाय की तलब में
सिगरेट का धुआँ मिलाने की
और 'अच्छे लोगों' के बीच बैठकर
'अच्छी न लगने वाली' बातें करने की
सर्द रातों को मुट्ठियों में लेकर
और बिना शॉल ओढ़े नंगे पाँव घूमते हुए
माँ की मीठी डाँट खाने की
बेवजह कहीं भाग जाने की
और सड़कों के माथे पे लिखे तमाम पते मिटाकर
वापस लौट आने की
जाने पहचाने चेहरों से
अपनी उदासियाँ छुपाने की
और अजनबी कंधों से
टिककर फफक के रो लेने की
अपने हाथों की लकीरों को
कभी गुम होते, कभी उगते देखने की
और कच्ची नींदों में पक्के ख्वाब उगाने की
प्रार्थनाओं के सीने से लगकर
खूब रो लेने की
मंदिर के घंटों की बेचारगी में
अजान की आवाज को सिमटते देखने की
आदत है रोज थोड़ी सी बेचैनी जीने की
बूँद भर जीने के लिए रोज समंदर भर मरने की
बस कि नहीं पड़ पाई आदत अब तक
तेरे ख्याल को झटक कर जी पाने की...
आदतें भी अजीब होती हैं...
 


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में प्रतिभा कटियार की रचनाएँ